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एक छोटे शहर में कंवल नाम का वृद्ध अपने बेटे और बहु के साथ रहता था। कँवल के बेटे का नाम गोविंद था और गोविन्द की बीवी का नाम निम्मो था। .. कँवल ने पुरे जीवन मेंहनत कर एक सुन्दर घर बनाया था। उसकी ऊपरी इमारत मे गोविंद और उसकी बीवी निम्मो रहती थी और निचली इमारत मे कँवल रहता था। कँवल की बीवी को मरे हुए काफी अरसा हो गया था, और उसकी तबियत भी आज कल सही नहीं रहती थी। उसके पास इस घर के अलावा कुछ थोड़ी बहुत जमा पूंजी थी, जो वह अपनी दवा और खाने पीने पर खर्च करता था। कँवल की अपने बेटे नहीं बनती थी आये दिन झगडे होते थे। कँवल का बेटा गोविंद और उसकी बीवी निम्मो काफी लालची और झगड़ालू थे. वह कँवल पर ज़रा सी भी हमदर्दी नहीं दिखाते थे। ऐसा नहीं सारी गलतिया सिर्फ गोविन्द और उसकी बीवी की थी। कँवल भी अपने समय मे काफी लालची और धूर्त था। पैसे के मामले में वो किसी पे भरोसा नहीं करता था। पर व्यापार में कई घाटे खाने के बाद और बीवी के दिहांत के बाद वह काफी बदल गया। एक दिन कँवल और उसकी बहु के बीच कुछ बहस हो गयी। और यह बहस बहुत बड़े झगडे मे बदल गयी । बात इतनी ज़्यादा बढ़ गयी की कँवल को गोविन्द ने कहा की "बापू तुमने हमारी ज़िन्दगी खराब कर दी हैं। तुमने अपनी पूरी ज़िन्दगी, इस घर बनाने में लगा दी, इसके अलावा आपने कुछ नहीं किया। न अपने बच्चों के बारे मे सोचा, न ही कुछ पैसा बनाया। तुम अगर कल मर भी जाओ तो इतना पैसा नहीं की तुम्हरी अंतिम क्रिया अच्छे से की जा सकें। तुमने अपना पूरा जीवन व्यर्थ ही जिया, लानत है तुमपर। यह सब सुन कर कँवल सहम सा गया उसे कुछ न सूझा और वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया। रात भर कँवल यही सोचता रहा ...क्या वाकई उसका जीवन व्यर्थ गया? क्या, इस घर के अलावा और कुछ नहीं बना पाना उसकी सबसे बड़ी चूक थी. उसने बड़े चाव से यह घर बनाया था और उसपे काफी पैसा भी लगाया था। आज भी इस तरीके का घर बनवाना शायद ही संभव हो। उस वक्त भी उसके आस पड़ोस वाले और उसके रिश्तेदार इस घर की तारीफ़ करते थकते नहीं थे। और कँवल भी अपने इस आलिशान घर को देख अपने पर गर्व करता था । पर अब वक्त ने ऐसी करवट ली की यही घर उसे व्यर्थ ठहरा रहा है। जिसपर उसने अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी। काफी समय बीत गया था, कँवल को आज भी गोविन्द की कही बात नहीं भूली थी, वह बिलकुल चुपचाप रहने लगा था। किसी से कोई बात नहीं करता था, बहस और लड़ाई तो दूर की बात. जो काम वह गोविन्द को कह के करवाता था वह काम भी उसने खुद से करने शुरू कर दिए। जैसे घर की मरम्मत के लिए वह गोविन्द को कहता था। लेकिन अब वह खुद मिस्त्री बुलवाकर उससे ठीक करवाने लगा। घर को इतने साल बाद मरम्मत की ज़रूरत थी और उसपर काफी पैसा भी खर्च होना था । जोकि कँवल आपने जेब से खर्च करने लगा था। जैसे जैसे घर ठीक होता गया, वैसे वैसे कँवल की तबियत खराब होती गयी। क्योंकि अपनी दवाई का पैसा भी वह घर की मरम्मत पर लगाने लगा। और एक दिन आया जब कँवल को हस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया था की अब कँवल के पास ज़्यादा समय नहीं है। कँवल भी यह जान गया था। उसने गोविन्द और उसकी बीवी निम्मो को बुलाया और उनेह एक बक्सा दिया... और कहा की "इसे मेरी अंतिम सौगात समझना और इसे मेरे जानेके बाद ही खोलना।".... और यह कह के कँवल ने अंतिम सांस ली। गोविन्द ने भी बाप के जाने के बाद उसका अंतिम संस्कार अच्छे से किया। कई दिन बीत जाने के बाद गोविन्द की पत्नी को अपने ससुर की कही अंतिम बात याद आयी उसने गोविन्द को भी याद दिलाया की अब तो वह यह बक्सा खोल सकते है। और देखे तो उस बक्से में आखिर है क्या? उन्होंने बक्सा खोला उसमे एक पत्र था। जोकि कँवल के वसीयत के रूप में था। उसमे लिखा था की "प्रिय गोविन्द! इस घर की नीव मे एक बहुत बड़ा खज़ाना है। जो मैंने तुमसे छुपा के रखा, जोकि काफी अनमोल है। अब वह अनमोल चीज़ तुम्हारी हुई। अब यह तुम्हारे हाथ मे है की तुम उस अनमोल चीज़ को कैसे उपयोग में लाते हों। हां पर उस ख़ज़ाने को पाने के लिए तुमेह यह घर गिराना होगा। तुम्हारा पिता कँवल प्रताप सिंह"। यह कह के वसीयत खत्म होगयी। दोनों अचंभित थे और खुश भी। अचंभित इसलिए की इतनी बड़ी बात उनके पिता ने उनसे छुपा रखी थी और इस ख़ज़ाने को पाने के लिए इतनी अजीब शर्त भी रखी। खुशी इस बात की अब वो आमिर हो गए थे। उनेह लाखों करोड़ों का खज़ाना मिल गया था। उन्होंने तुरंत फैसला किया की वह इस घर को गिरा देंगे। दोनों ने अगले ही दिन मिस्त्री और मज़दूरों को बुलाया और घर गिराने का आदेश दिया। इस काम मे काफी दिन लग गए। सभी लोग हैरान थे की शायद बाप के मरने पर गोविन्द पागल हो गया है। इतना अच्छा मकान जो अभी हाल ही में ठीक करके बढ़िया बनाया था उससे यह पागल क्यों तोड़ रहा है। पर उसने किसी की न सुनी। आखिर वह दिन आ ही गया। जब पुरा घर टूट गया और सब मलबा भी हटा दिया गया। अब दिन था,उस अनमोल ख़ज़ाने को ढूंढ़ने का गोंविद और उसकी पत्नी खुद औज़ार लेके नीव खोदने लगे। अभी थोड़ा सा ही खोदा था की उनेह लोहे का छोटा संदूक मिल गया वह काफी खुश हो गये। गोविन्द ने संदूक को बाहर निकाला और निम्मो ने झटपट देर न लगाईं उसका ताला तोड़ने में। और जैसे ही उन्होने उस संदूक को खोला। तो वह दंग रह गए। उस संदूक मे पत्थर ही पत्थर थे। और साथ मे एक चिट्ठी। गोविंद ने चिट्ठी खोली और पड़नी शुरू की। "प्रिय गोविन्द बेटे, वैसे मैं नहीं चाहता की तुमेह यह चिट्ठी मिले पर अगर तुम्हें यह चिट्ठी मिल ही गयी है तो गौर से सुनो जिस चीज़ की कद्र तुमेह नहीं थी वह तुमने मुझे मेरे मरने के बाद मुझे ही वापस दे दी। और वो है यह घर।... मेरे मरने के बाद यह घर भी मेरे साथ चला गया यही समझना। हां पर ख़ज़ाने के तौर पर तुमेह एक सीख दे जा रहा हूँ। और वो यह है की, अपने बड़े बज़ुर्गों का सम्मान करना।..और यह सीख अपने बच्चों को ज़रूरर सिखाना। शायद इस घर को बनाते बनाते मैं वो सीख तुमेह नहीं दे पाया, पर तुम जब अपना घर बनाओगे, तो उसे बनाते बनाते उसमे खो मत जाना। इन् सभी बातों का ध्यान रखना , अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देना। उनेह सिर्फ पैसा कमाना मत सिखाना। उनेह पैसा का महत्व समझाना। और साथ में बूढ़े बज़ुर्गों की सीख देना। मैं जानता हो तुम्हारे लिए इस महंगाई के ज़माने में घर बनाना कितना मुश्किल होगा। पर जब तुम बनाओगे तो तुमेह मेरे किये हुए परिक्षम का भी अहसास होगा। जिस वजह से शायद तुम मेरी क़द्र कर पाओगे जो तुम जीते जी नहीं कर पाए। याद रहे,जो गलतिया मैंने की वो तुम मत करना ,हां अपने अनुभव के लिए नयी गलतियां ज़रूर करना और उन गलतिओं की सीख , परंपरा के तौर पर अपने बच्चों को दे के जाना। तुम्हारा पिता।" चिट्ठी पढ़ने के बाद, गोविन्द की आँखें भर आयी और उसे जीवन की बहुत बड़ी सीख मिल गयी थी।